जाटों को कुछ सीटें त्याग कर सियासी मैदान में बङा दिल दिखाना होगा – जाने ख़ास

जाट ………..सियासत …… एक नज़र –
जाटों को राजस्थान की करीब एक चौथाई विधानसभा सीटों पर उम्मीदवारी का दावा करने की बजाए अपनी जीती हुई कुछ सीटों का भी त्याग करना चाहिए, ताकि सियासी सन्तुलन स्थापित हो सके और अन्य जातियों की जाटों के प्रति नाराजगी भी कम हो सके।
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इन सीटों में मण्डावा, झुन्झुनूं, गुढा उदयपुरवाटी, फतेहपुर, लाडनूं , नागौर, भादरा, चूरू, मकराना, आमेर, फलौदी आदि दो दर्जन सीटें प्रमुख हैं, जहाँ से या तो वर्तमान में जाट विधायक हैं या फिर कुछ मजबूत जाट नेता प्रमुख पार्टियों से दावेदार बने हुए हैं।
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जाट कौम के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं को इन जाट दावेदारों को समझाना चाहिए कि आप इन सीटों से दावेदारी छोङ कर दूसरी कौमों के दावेदारों का समर्थन करें तथा उन्हें टिकट दिलवाने व चुनाव जीताने में सहयोग भी करें।

जयपुर | जाट कौम राजस्थान का एक प्रमुख समुदाय है, जो आजादी से पहले तक सामन्तों के हाथों जबरदस्त शोषण व प्रताड़ना का शिकार हुई थी। जाटों का मुख्य पेशा खेती किसानी था, जमीनें सामन्तों व जागीरदारों की होती थी, उस पर मेहनत कर कृषि उत्पाद पैदा करने वाले जाट समुदाय को मामूली हिस्सा मिलता था। जिससे जाट आर्थिक तौर पर बेहद पिछङे थे। आजादी के बाद जाटों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया। इन्होंने कठोर मेहनत कर अपने बच्चों को पढाया, जिसका नतीजा यह हुआ कि हर दफ्तर में जाट कर्मचारी व अधिकारी सरकारी सेवा में लगने लगे। खेती का हिस्सा पूरा मिलने लगा, जमीनों का मालिकाना हक मिलने लगा। इसके अलावा सामन्तवाद के खिलाफ जद्दोजहद करने वाले जाट आन्दोलनकारियों ने चुनावों में भाग लेकर सत्ता में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की। इस तरह आजादी के एक दशक बाद ही जाट तेजी से एक सम्पन्न कौम बन गई। लेकिन धीरे-धीरे जाटों का विरोध भी होने लगा और यह विरोध पिछले दो तीन दशक में तेजी से बढने लगा, जो इस वक्त अपने ऊरूज पर है।

जाट -आंदोलन [ pic ]

ऐसी स्थिति में जाट बाहुल्य इलाकों में अन्य समुदायों को राजनीतिक हाशिये पर लगना पङता है और कम आबादी वाले समुदायों जैसे खाती, सुनार, चारण, कुम्हार आदि एवं अधिक आबादी वाले समुदाय जैसे मुस्लिम व माली आदि की जाटों के राजनीतिक लोभ से नाराजगी बढती जा रही है। जाट समुदाय एक सेक्यूलर और मेहनती समुदाय है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से जाटों में भी साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। जिससे जाट बाहुल्य क्षेत्रों में स्पष्ट तौर पर साम्प्रदायिकता की लकीरें खिंचती जा रही हैं। जो न तो जाट जाति के राजनीतिक वजूद के लिए शुभ संकेत है और ना ही जाट बाहुल्य क्षेत्रों के सदभाव के लिए लाभकारी है। इसलिए बेहतर यह है कि जाट समुदाय के राजनेता व बुद्धिजीवी इस बात पर चिंतन मन्थन करें कि सत्ता का बढता लोभ और साम्प्रदायिक ताकतों के जाल में फंसना कहीं आत्मघाती नहीं बन जाए !
कोई माने या न माने, लेकिन यह सौ फीसदी सच है और इस सच से जाट नेता भी वाकिफ हैं कि जाटों के सत्ता लोभ के कारण अन्य समुदाय जाटों से नाराज हैं तथा यह नाराजगी घटने की बजाए बढती जा रही है। यह नाराजगी अन्य समुदायों को एकजुट होने एवं जाट उम्मीदवार के खिलाफ किसी मजबूत उम्मीदवार को वोट देने के लिए प्रेरित कर रही है। इसलिए जाटों को चाहिए कि वो करीब एक चौथाई विधानसभा सीटों पर दावेदारी करने की बजाए अपनी जीती हुई कुछ सीटें भी छोङ दें और यहाँ से अन्य समुदायों से सम्बंधित नेताओं को टिकट दिलवा कर उनको चुनाव जिताने में मदद करें, ताकि जाट बाहुल्य क्षेत्रों में सियासी संतुलन स्थापित हो सके। इस संदर्भ में कुछ सीटों का नाम ऊपर लिखा है और ऐसी कुछ और सीटें भी पूरे प्रदेश में हैं, जहाँ से जाट नेताओं को अपना बङा दिल दिखाते हुए अपनी दावेदारी छोङकर अन्य समुदायों को अवसर देना चाहिए।
एम फारूक़ ख़ान { सम्पादक इकरा पत्रिका }